कलयुग की कहानी Pramod Mehta, September 21, 2022December 5, 2022 The Story of ‘Kalyug’ वर्ष 1970 में बनी हिन्दी फिल्म ‘गोपी’ का एक गीत 50 वर्ष बाद भी वर्तमान परिस्थिति में भी बहुत उपयुक्त लगता है । इस गीत के हर छंद में जो माहौल का वर्णन है वो आज भी विध्यमान है । इस लेख के माध्यम से गीत की कुछ पंक्तियों का वर्णन एवं व्याख्या का उल्लेख कर रहा हूँ। इस गीत की पंक्तियाँ “हे जी रे हे रामचंद्र कह गए सिया से ऐसा कलयुग आएगा” से प्रारम्भ होती हैं। हंस चुगेगा दाना तुन का कौआ मोती खाएगा – जैसा कि इस पंक्ति के भावार्थ से मालूम पड़ता है कि, जिसको जो हक़ का मिलना है वो उसे न मिलकर दूसरे हड़प रहे हैं जैसे बिचोलिए जो की सभी जगह पनप गये हैं, क्योंकि आम आदमी को हर पग पर शासक के जटिल नियमों एवं कानूनों का सामना करना पड़ता है और उसके पास इतना समय नहीं है कि वह इनको समझकर स्वयं कार्य करे इसलिये उसको इन बिचोलियों पर आश्रित होना पड़ता है । अब वो समय आ गया है जब शासक आम नागरिक की सुविधा के अनुसार सरल नियम कानून बनाए जिससे जो धन मध्यस्थ निगल रहे हैं वह या तो सरकार के पास जाये या आम आदमी के पास रहे। ‘में और मेरी सरकार तीसरे से नहीं सरोकार’ धर्म भी होगा कर्म भी होगा, परंतु शर्म नहीं होगी – यह पंक्ति भी सत्य चरितार्थ होती है । सभी का धर्म के प्रति लगाव है इसी तरह सभी अपने-अपने कर्म के प्रति सजग हैं परंतु इन सभी कार्यों से शर्म का कर्म दिखाई नहीं पड़ रहा है। आजकल इज्ज़त, सम्मान एवं आदर का तिरस्कार बहुत दिखता है चाहे वह पहनावे, बातचीत, मेलजोल एवं देश हो । यदि हमको सुखी जीवन की अभिलाषा रखनी है तो अपने व्यवहार में शर्म, सम्मान, एवं आदर को भोजन में नमक के समान अपनाना अति आवश्यक है।‘शर्म की चादर पर बैठेंगे सम्मान व आदर’। बात बात में मात-पिता को बेटा आँख दिखाएगा – आजकल तो इससे से भी आगे निकल गये हैं क्योंकि पहले तो कम से कम बेटे को इस रूप में देखते तो थे अब तो माता-पिता उन आँखों को देखने के लिये तरसती हैं । आय अर्जन के लिये ज़्यादातर सन्तानें अपने वतन से दूर रहती हैं । आज भी कुछ ऐसे उदाहरण हैं जहां बच्चों ने माता-पिता के लिये मिसाल पेश की हैं। धर्म की 75% क्रिया तो माता-पिता की सेवा में ही है । तन्हा पैरेंट्स अपनी संतान के लिये यह गीत गुनगुनाते है “अकेले हैं चले आओ जहां हो, कहाँ आवाज़ दें तुमको कहाँ हो’ (हिन्दी फिल्म ‘राज’,वर्ष-1967) । ‘माता-पिता का साथ तो धन की क्या बिसात’ राजा और प्रजा में खेचातानी, करेंगे दोनों अपनी मनमानी – आज की वास्तविकता से बिलकुल रूबरू होती पंक्ति है । जनता एवं शासन में समन्वय बहुत कम ही दिखाई पड़ता है उसकी सबसे मुख्य वज़ह है अहं (ego) जैसे ही लोक-सेवक या प्रशासनिक पद मिलता है तो स्वयंभू होने का अहं समा जाता है फिर शुरू होती है रस्साकशी, परिणामतः दोनों की मनमानी । सबसे पहले तो राजा को अहं त्यागना होगा तभी प्रजा क़ाबू में होगी क्योंकि किसी को उपदेश देने से पहले स्वयं को उसका पालन करना ज़रूरी है । यह तो सर्वमान्य है कि, समन्वय एवं सहिष्णुता समाज एवं देश को प्रगति की ओर अग्रसर करते हैं । ‘King Leader, Public follower’ जिसके हाथ में होगी लाठी भैंस वही ले जाएगा – यह कहावत तो सदियों से लागू हो रही है और आज भी प्रासंगिक है क्योंकि कर्जे लेकर बने धनवान एवं समूह की ताकत वाले एकाधिकार की ओर प्रवृत है । आम जनता तो ‘जाने भी दो यारों’ वाली प्रवृत्ति अपनाती हैं एवं शिकायत निवारण के प्रति ज्यादा मुखर नहीं है क्योंकि उसकी प्रक्रिया भी बहुत जटिल है। इसका एक ही ज़वाब है संगठन एवं एकजुटता जिसकी मध्यम वर्ग में बहुत ज़रूरत है क्योंकि वही बिखरा हुआ है । यदि एकजुट हो जायें तो भैंस उसके असल मालिक के पास होगी न की लाठी वाले के पास। ‘संगठन की ताक़त लाठी की आफ़त’ काला धन और काले मन होंगे, चोर उच्चक्के नगर सेठ –बिलकुल सही फ़रमाया गया है । काले धन एवं मन की तो भरमार है और बेंकों से धन लूट कर (उधार) विदेश भागे लोगों से तो सभी परिचित है ही इनके अलावा भी बहुत से ऐसे लोग देश में भी बेंक से कर्ज़ लेकर कर्ज़दार होकर नगर सेठ बने हुए हैं। नगर सेठ की सही परिभाषा है कि, जब ज़रूरत पड़े तो वह राज्य को अपना धन देकर मुश्किलों से निकाल दे जिसका सबसे उत्तम उदाहरण राजस्थान के सेठ श्री भामाशाह हैं। ‘ईमानदारी का साथ तो फिक्र की क्या बात’ जो होगा लोभी और भोगी वो जोगी कहलाएगा – पहले से लेकर आज तक बहुत से लोभी और भोगी ने अपने बुरे कार्यों को छुपाने के लिये जोगी का रूप धारण कर लिया है । इस विषय पर तो अनेकों फिल्म भी बन चुकी हैं । ऐसे जोगियों से बचने के लिये तो शिक्षित होना एवं धर्म की सही व्याख्या का ज्ञान होना अति आवश्यक है जो कट्टरवाद एवं धर्मांधता से भी दूर रखेगी । ‘शिक्षा की आख्या ही धर्म की व्याख्या’ मंदिर सूना सूना होगा भरी रहेंगी मधुशाला – आजकल तो दोनों ही भरे हुए हैं परंतु मधुशाला का भरा होना बहुत विचारणीय प्रश्न है । सुरा से होने वाले नुकसान एवं परिणामों के प्रति सजगता की मानसिकता ही इसके दुष्प्रभाव को कम कर सकती है। यह हानियाँ तो हम जानते बूझते ही करते हैं । सुरा से शारीरिक मदहोशी से बेहतर है मधुर संगीत की गर्मजोशी। ‘प्रेम की शाला नहीं बनेगी मधुशाला’ गीत की पंक्तियों में उल्लेखित बुराइयों के महत्वपूर्ण कारण हैं, देशभक्ति भावना की कमी, मांग एवं पूर्ति में असंतुलन क्योंकि हमारे देश में जनसंख्या अधिक होने के कारण मांग भी अधिक है परंतु उस अनुपात में संसाधन नहीं होने से कालाधन, काले मन, शक्ति का दुरुपयोग, लोलुपता एवं एकाधिकार आदि बुराइयाँ पनप गयीं हैं । सरकारें अपने स्तर पर प्रयासरत हैं परंतु इतने बड़े जहाज को चलाने लायक संसाधन की उप्लभ्धता बहुत बड़ी चुनौती है जो केवल एकता के ईंघन, त्याग के दिशासूचक, सक्षम परिश्रमी चालक, देशभक्ति की हवा से ही पूर्ण हो सकती है। सोने की खान, भारत देश महानविश्व शांति का पैगाम, भारत के नामअहिंसा का पाठ, भारत की शानप्रजातन्त्र की बात, भारत का मान चंद बेईमान फिर भी मेरा भारत महान Positive Thinking